Monika garg

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लेखनी कहानी -03-Jul-2023# तुम्हें आना ही था (भाग:-22)#कहानीकार प्रतियोगिता के लिए

गतांक से आगे:-


देवदत्त ज्वर की हालत में अपने कमरे में टहल रहा था वह पहले से काफी कमजोर दिखाई दे रहा था। पता नहीं क्यों वो शाम से ही बेचैन था । संध्या वेला से ही उसे ऐसे लग रहा था जैसे उसके दिल का करार बहुत नजदीक है उससे , तभी वह बार बार खिड़की पर आता और फिर बग़ीचे में कुछ ढूंढता और फिर अपने पलंग पर जाकर बैठ जाता ।जैसे चंद्रिका आ रही है ये उसे पहले से पता चल चुका हो।


वह बार बार जरा सी आहट पर ही उठ खड़ा हो रहा था। इधर शाम कुछ और ज्यादा श्यामल रंग हो चुकी थी । चंद्रिका बहुत सहज सहज उस पहाड़ी से नीचे उतर रही थी ताकि कोई उसे देख ना ले  क्योंकि महल में बहुत आवा-जाही थी लेकिन देवदत्त एक शिल्पी था तो उसका कक्ष महल से थोड़ा हटकर बग़ीचे से सटा कर बनाया गया था ताकि उसे अपनी कलाकृति को रखने के लिए पर्याप्त जगह मिल सके। चंद्रिका धीरे-धीरे अंधेरें का सहारा लेकर आगे बढ़ रही थी  ।वह देवदत्त के कक्ष तक पहुंचने ही वाली थी कि तभी किसी ने पीछे से आवाज़ दी ,

"अरे…..दासी राज शिल्पी जी अस्वस्थ हैं तुम क्या करने जा रही हो उनके कक्ष में?"



चंद्रिका ने अपना चेहरा अपनी दासी की ओढ़नी से ढंक रखा था तो सैनिक अंधेरें की अधिकता के कारण समझ नहीं पाया कि वो दासी है या राज नर्तकी।

तभी चंद्रिका ने दवाई की शीशी आगे करके आवाज बदल कर कहा,"जी ये औषधि मंगवाईं थी उन्होंने और थोड़े फल भी ।वहीं देने जा रही हूं।"

"अच्छा अच्छा जाओ ।" यह कहकर वो सैनिक अपनी गश्त पर चला गया।

चंद्रिका की तो जैसे अटकी सांसें वापस आ गयी हो।उसने दौड़कर कमरे का दरवाजा खटखटाया तभी अंदर से देवदत्त ने दरवाजा खोला ।सामने चंद्रिका को देखकर देवदत्त मुस्कुरा उठा और उसे खींचकर अपने नजदीक ले आया और बोला,"प्रिय मुझे पता चल गया था ,मेरे मन ने पहले ही बता दिया था कि मेरी प्रेयसी मुझ से मिलने आ रही है। ओह…चंद्रिका तुम करार हो मेरे दिल का प्रिये ऐसे ना तड़पाया करो मुझे।"

यह कहकर देवदत्त ने चंद्रिका को अपनी आगोश में ले लिया। चंद्रिका भी जैसे इसी पल के इंतजार में थी।वह एक लतिका की भांति देवदत्त से लिपट गयी। दोनों बहुत देर तक ऐसे ही खड़े रहे ।फिर अपने को देवदत्त की मजबूत भुजाओं से अलग करते हुए चंद्रिका बोली,


"देव तुम को मेरी परवाह नहीं है ।जाओ मैं तुम से नहीं बोलती। मैं वहां ताप मे तड़प रही थी और तुम मुझे देखने भी नहीं आये ।"यह कहकर चंद्रिका एक ओर मुंह बना कर खड़ी हो गई।

तब देवदत्त बड़े प्यार से उसे देखते हुए बोला,"मेरी चंदा मैं रह ही नहीं सका तुम्हारे बगैर तभी तो इतने घनघोर मौसम में भी तुम्हारे पास दौड़ा चला आया।तुमने ही मुझे अपना हाल चाल नहीं बताया और जब हवेली गया तो पूछती हो "आप यहां,कैसे" चलों मैं भी तुम से नाराज़ हूं।"


चंद्रिका की तो जैसे जान पर बन आई कि उसका देव उससे नाराज़ हैं और वह दौड़कर एक बार फिर से देवदत्त से लिपट गयी,

"मेरे देव….मेरे देव आगे से मत कहना कि मैं तुमसे नाराज़ हूं , तुम्हारी चंद्रिका तो मर ही जाएगी तुम्हारे बगैर।" यह कहकर चंद्रिका रोने लगी।उसे रोता देख देव की सांसें अटक गई।वह दौड़कर कक्ष में रखें पानी की सुराही से पानी ले आया और चंद्रिका को शांत करते हुए बोला,"तो क्या तुम्हारा देव ज़िंदा रहेगा तुम्हारे बगैर ? ना एक सांस भी नहीं आ पायेगी मुझे इस संसार में तुम्हारे बगैर।अब चुप करो ।ये थोड़ा सा ही समय मिला है हमें मिलने का ।मुझे जी भरकर देख लेने दो तुम को ताकि मेरी कृतियां साकार हो सके तुमबिन तो वो सब बेजान मूरत सी लगती है जब उसमें मैं तुम्हारा अक्स उकेरता हूं तो जीवंत होती है।ओहहह…. चंद्रिका मुझे छोड़ कर कभी मत जाना ।"


*ओह मेरे देव इस धरती पर जब जब चंद्रिका का जन्म। होगा "तुम्हें आना ही होगा" मेरे देव मेरे पास वरना चंद्रिका सांसें कैसे लेगी।ओ देव मेरी एक सुंदर सी मूरत बनाओ ना ।"


"चंद्रिका मैं हर कलाकृति में तुम्हारी ही मूरत बनाता हूं चाहे वो देवी हो या पनिहारिन।"


"नहीं देव आज तुम केवल और केवल अपनी चंद्रिका की ही मूरत बनवाओगे।अब मुझे बताओ मैं कौन सी मुद्रा में खड़ी होऊं।"


दोनों इस प्रकार बातें कर रहे थे जैसे दोनों कभी बीमार ही नहीं थे दोनों। के ज्वर एक दूसरे को देखते ही छू-मंतर हो गये। चंद्रिका देव को देखकर ये भी भूल गयी कि मां ने उसे एक थैला भी दिया था और औषधि भी दी थी देव को देने के लिए जिसे वो अभी अभी बाहर गश्त पर आये सैनिक को दिखाकर आई थी। दोनों अपनी ही दुनिया में मग्न थे।

देवदत्त ने चंद्रिका को एक बहुत ही सुंदर मुद्रा में बैठाया जिसमें बैठी हुई वो स्वर्ग की अप्सरा सी लग रही थी और लगा उसकी मूर्ती गढ़ने। छैनी हथोड़े की आवाजें खटखटखट आने लगी । देवदत्त के हाथ बिजली की गति से चल रहे थे और तकरीबन एक घंटे में उसने चंद्रिका की मूर्ति बना दी ।फिर कुछ सोचते हुए शरारत से बोला," चंद्रिका अभी मूर्ति में कुछ कमियां हैं वादा करो कल फिर मिलने आओगी।"

"नहीं देव मैं जिस रास्ते से तुमसे चोरी छुपपे मिलने आई हूं वो एक गुप्त मार्ग है लाल हवेली और महल के बीच ।जब राजा वीरभान ने हवेली बनवाईं थी तो बहुत से गुप्त मार्ग बनवाएं थे हवेली में । मैं अब दोबारा नहीं आ पाऊंगी मैंने मां से वादा किया है।"

जिसे सुनकर देवदत उदास हो गया ।अब चंद्रिका उठ खड़ी हुई और बोली ,"अच्छा। देव ये मां ने तुम्हारे लिए दवा और फल दिये है इन्हें खा लेना अब मैं चलती हूं।"

यह कहकर चंद्रिका वो ओढ़नी ढूंढने लगी जो ओढ़कर आई थी पर वो कक्ष में कहीं भी दिखाई नहीं दी फिर उसे याद आया ववो तो कक्ष से बाहर ही रह गयी थी जब वह देवदत्त को देखकर अपनी सुध-बुध खो बैठी थी ।वह कक्ष का दरवाजा खोलकर ओढ़नी उठाकर लपेटकर चली गयी।


पर कहते हैं बेइंतहा प्यार को किसी की नज़र जल्दी लगती है 



कहानी अभी जारी है.………….


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